बीएचयू में जातिगत भेदभाव: शिवम सोनकर को पीएचडी प्रवेश से वंचित करने का मामला

काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में जातिगत भेदभाव और 



शैक्षणिक तानाशाही के खिलाफ विरोध की लहर

 विनय मौर्या / त्रिपुरेश्वर कुमार त्रिपाठी  (सोनू)


भारत में शिक्षा को सामाजिक न्याय और समावेशिता का माध्यम माना जाता है, लेकिन काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में हो रही घटनाएं इस विश्वास को ठेस पहुंचा रही हैं। हाल ही में, पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया को लेकर बीएचयू में छात्रों का विरोध सामने आया, जिसमें शिवम सोनकर को कथित तौर पर पीएचडी प्रवेश से वंचित किया गया। इस पूरे मामले ने विश्वविद्यालय में जारी जातिगत भेदभाव और प्रशासनिक तानाशाही को उजागर कर दिया है।

शिवम सोनकर और पीएचडी प्रवेश विवाद


शिवम सोनकर उन कई छात्रों में से एक हैं, जिन्होंने बीएचयू की पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव के खिलाफ आवाज उठाई। प्रशासन द्वारा लागू किए गए नए नियमों के अनुसार, पीएचडी में प्रवेश केवल जेआरएफ (Junior Research Fellowship) उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को ही मिलेगा, जिससे यूजीसी नेट (UGC-NET) और अन्य योग्य उम्मीदवार वंचित रह जाएंगे।


शिवम सोनकर के मामले में भी यही देखा गया। उन्होंने विश्वविद्यालय के निर्धारित मानकों के अनुरूप सभी आवश्यक योग्यताएँ पूरी की थीं, फिर भी उन्हें प्रवेश नहीं दिया गया। यह संदेह पैदा करता है कि प्रशासन ने उन्हें जातिगत आधार पर प्रवेश से वंचित किया।

छात्रों का विरोध और प्रशासन की बेरुखी


बीएचयू में छात्रों ने इस अन्यायपूर्ण प्रक्रिया के खिलाफ प्रदर्शन किया। कई छात्र संगठनों ने आरोप लगाया कि विश्वविद्यालय की नई प्रवेश नीति आरक्षण प्राप्त छात्रों को वंचित करने के लिए बनाई गई है। इस विरोध में शिवम सोनकर भी प्रमुख रूप से शामिल थे।

छात्रों ने कुलपति कार्यालय के सामने धरना दिया और मांग की कि पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया को पारदर्शी और न्यायसंगत बनाया जाए। लेकिन प्रशासन ने उनकी मांगों को नजरअंदाज कर दिया। इसके बजाय, छात्रों के विरोध को दबाने के लिए कड़ी कार्रवाई की गई, जिसमें पुलिस बल का उपयोग भी शामिल था।

बीएचयू में जातिगत भेदभाव की परंपरा

यह पहली बार नहीं है जब बीएचयू में जातिगत भेदभाव के मामले सामने आए हैं। पूर्व में भी कई बार दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों को अलग-अलग तरीकों से परेशान किया गया है। विश्वविद्यालय का इतिहास जातिगत भेदभाव और प्रशासनिक तानाशाही की घटनाओं से भरा पड़ा है।

शिवम सोनकर के मामले ने इस मुद्दे को फिर से सुर्खियों में ला दिया है। यदि प्रशासन योग्य छात्रों को उनके हक से वंचित करता रहेगा, तो यह न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगा, बल्कि देश के शैक्षणिक माहौल को भी नुकसान पहुंचाएगा।

क्या शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है?

शिक्षा समानता का सबसे बड़ा माध्यम है, लेकिन जब शैक्षणिक संस्थान ही भेदभाव करने लगें, तो यह चिंता का विषय बन जाता है। बीएचयू प्रशासन को इस मामले पर पारदर्शिता दिखानी चाहिए और सभी छात्रों को समान अवसर देना चाहिए।



शिवम सोनकर के साथ हुए अन्याय को केवल एक व्यक्ति का मामला मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह पूरे शैक्षणिक तंत्र में व्याप्त जातिगत भेदभाव और तानाशाही का उदाहरण है। अगर समय रहते इस पर कार्रवाई नहीं की गई, तो यह देश के उच्च शिक्षा संस्थानों की विश्वसनीयता को गहरा नुकसान पहुंचा सकता है।

निष्कर्ष

बीएचयू में शिवम सोनकर के साथ हुए जातिगत भेदभाव का मामला उन सभी छात्रों के लिए एक चेतावनी है, जो समान अवसर और न्यायसंगत शिक्षा प्रणाली की उम्मीद करते हैं। यह आवश्यक है कि इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा हो और सरकार व विश्वविद्यालय प्रशासन इसे गंभीरता से लें। जब तक शैक्षणिक संस्थानों में पारदर्शिता और समानता नहीं होगी, तब तक शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।


शिवम सोनकर और उनके जैसे अन्य छात्रों को न्याय दिलाने के लिए सभी को एकजुट होकर आवाज उठानी होगी। यह केवल एक छात्र का नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र की निष्पक्षता और भविष्य का सवाल है।

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने